आरोपी और पीड़िता में समझौते से रद्द नहीं हो सकता यौन उत्पीड़न का मुकदमा।

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले को किया खारिज

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी और पीड़िता के बीच समझौते के आधार पर यौन उत्पीड़न के मामले को रद्द करने वाले राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए ऐसा फैसला सुनाया था।


जस्टिस सीटी रविकुमार व जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने कहा, एफआईआर व आपराधिक कार्यवाही कानून के अनुसार आगे बढ़ाई जाए। पीठ ने स्पष्ट किया, वह मामले के गुणदोष पर कोई टिप्पणी नहीं कर रही है। इसमें मुद्दा था कि क्या हाईकोर्ट आरोपी और पीड़िता के बीच समझौते के आधार पर यौन उत्पीड़न के मामले को रद्द कर सकता है। 


15 वर्षीय पीड़िता के पिता की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी। बाद में, लड़की के परिवार व आरोपी में समझौता हो गया। मामले को रद्द कराने के लिए आरोपी ने हाईकोर्ट का रुख किया। कोर्ट ने आपराधिक मामला रद्द कर दिया। शीर्ष कोर्ट में यह याचिका अप्रभावित तीसरे पक्ष, रामजीलाल बैरवा ने दायर की थी। 


बच्चों के खिलाफ ऐसे अपराध जघन्य... निजी प्रकृति के नहीं

पीठ ने कहा, बच्चों के खिलाफ ऐसे अपराधों को जघन्य और गंभीर माना जाना चाहिए। ऐसे अपराध, निजी प्रकृति के रूप में हल्के में नहीं लिए जा सकते। उन्हें समाज के खिलाफ अपराध के रूप में लिया जाना चाहिए। पीठ ने कहा, जब इस तरह की और गंभीर घटना उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में हो और वह भी शिक्षक आरोपी हो, तो इसे केवल उस अपराध के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता, जो पूरी तरह से निजी प्रकृति का हो और जिसका समाज पर कोई गंभीर प्रभाव नहीं है।


हाईकोर्ट निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा... 

समझ से परे पीठ ने कहा, यह समझ से परे है कि हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा कि यह दो पक्षों का विवाद है, जिसे सुलझाया जाना चाहिए और एफआईआर व सभी कार्यवाही को एफआईआर में दर्ज आरोपों पर ध्यान दिए बिना ही रद्द किया जाना चाहिए। पीठ ने शिक्षक व पीड़िता के पिता की इस दलील को भी खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने मामले के याचिकाकर्ता के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी थी।


न्याय की नाकामी पर तीसरे पक्ष को भी अपील का अधिकार

शीर्ष अदालत ने कहा कि जहां न्याय की विफलता प्रतीत होती है, ऐसे मामले में तीसरे पक्ष के अपील करने के अधिकार को निश्चित रूप से मान्यता दी जानी चाहिए और उसका सम्मान किया जाना चाहिए। भले ही न तो राज्य और न ही पीड़ित या 'पीड़ित' शब्द के तहत आने वाले किसी रिश्तेदार ने अदालत का रुख किया हो।

 


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