कहते हैं "अतिथि देवो भव", लेकिन अगर अतिथि राजनीतिक हो और सामने अफसर हो, तो शायद नमस्कार की संख्या भी वोट बैंक की तरह बढ़ती जाती है!
क्या यह सम्मान था या दबाव?
क्या यह विनम्रता थी या विवशता?
एक अधिकारी का काम जनता की सेवा करना है, नेताओं की चाटुकारिता नहीं। ऐसे दृश्य यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि क्या प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग राजनीतिक आकाओं के सामने नतमस्तक होकर "स्वतंत्र शासन व्यवस्था" की आत्मा का गला घोंट रहे हैं?
जहाँ एक ओर सरकारें "अफसरशाही में सुधार" की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर एक अफसर का बार-बार झुकना बताता है कि लोकतंत्र अब सिर्फ चुनाव तक सीमित रह गया है।
सरकार को चाहिए कि वो इस दृश्य को "Good Governance" की मिसाल न मानें, बल्कि आत्ममंथन करें कि अफसर किसके लिए झुक रहे हैं – जनसेवा के लिए या सत्ता के सामने?
- अगर यह वीडियो या दृश्य किसी विशेष संदर्भ (समारोह, परंपरा आदि) के अंतर्गत है तो उसकी भी जांच जरूरी है।
- इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष का अपमान नहीं, बल्कि व्यवस्था पर कटाक्ष है।