राजस्थान विधानसभा में विधायी नैतिकता की परीक्षा: कंवरलाल मीणा प्रकरण

लेखक: ताराचन्द खोयड़ावाल
संपादक: प्रगति न्यूज
संस्थापक: मजदूर विकास फाउंडेशन

राजस्थान की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर खड़ी है जहाँ संविधान, विधि और नैतिकता की कसौटी पर एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि की सदस्यता का भविष्य टिका है। भाजपा विधायक कंवरलाल मीणा, जो अंता विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हैं, उनके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा बरकरार रखे जाने के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है — क्या अब वे विधानसभा सदस्य बने रह सकते हैं?

न्यायिक पृष्ठभूमि:

वर्ष 2005 में एक एसडीएम को पिस्तौल दिखाकर धमकाने के मामले में मीणा को तीन साल की सजा सुनाई गई थी। राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा इस सजा को 1 मई 2025 को बरकरार रखा गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी 7 मई को इसे यथावत रखते हुए 21 मई तक आत्मसमर्पण का आदेश दिया।

यह एक गंभीर अपराध है, और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(3) के अनुसार, दो साल या उससे अधिक की सजा होने पर जनप्रतिनिधि स्वतः अयोग्य घोषित हो जाता है। यानि सैद्धांतिक रूप से, कंवरलाल मीणा की सदस्यता उसी दिन समाप्त हो जानी चाहिए थी जब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा बरकरार रखी।

सत्ता की सीमा तय करता संविधान: विधायक कंवरलाल मीणा को हाईकोर्ट से तीन साल की सजा


विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका:

विधानसभा अध्यक्ष वासुदेव देवनानी ने अब तक किसी स्पष्ट निर्णय की घोषणा नहीं की है। उनका कहना है कि राज्य के महाधिवक्ता से विधिक राय मांगी गई है और वह राय मिलते ही निर्णय लिया जाएगा।

यहाँ सवाल उठता है कि जब कानून स्पष्ट है और उच्चतम न्यायालय ने अंतिम निर्णय दे दिया है, तो देरी किस आधार पर की जा रही है? क्या विधिक राय एक स्पष्ट संवैधानिक स्थिति को उलझाने का माध्यम बन रही है?

राजनीतिक दृष्टिकोण:

कांग्रेस ने इस पूरे मामले में विधानसभा अध्यक्ष पर पक्षपात और न्यायिक आदेशों के उल्लंघन का आरोप लगाया है। नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने राज्यपाल से भी हस्तक्षेप की मांग की है, जो इस मुद्दे को और भी संवेदनशील बना देता है।

संवैधानिक और नैतिक प्रश्न:

यह प्रकरण सिर्फ एक विधायक की सदस्यता का नहीं है — यह पूरे लोकतांत्रिक तंत्र की नैतिकता और पारदर्शिता की परीक्षा है। यदि एक दंडित जनप्रतिनिधि विधानसभा की गरिमा में बैठे, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा है।


कंवरलाल मीणा की सदस्यता पर निर्णय केवल एक कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि एक नैतिक और संवैधानिक उत्तरदायित्व भी है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राजस्थान विधानसभा इस अवसर पर संविधान की गरिमा को सर्वोपरि रखती है या फिर राजनीतिक समीकरणों के आगे झुकती है।



 


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