प्रतिनिधित्व या केवल मुखौटा? बाबा साहब के अपमान पर खामोशी क्यों?

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भारतीय राजनीति में कुछ चेहरे बार-बार एक खास भूमिका निभाने के लिए आगे कर दिए जाते हैं — ताकि सत्ता पक्ष यह दिखा सके कि वह सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दे रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन चेहरों को निर्णय लेने की वास्तविक शक्ति भी दी जाती है, या वे केवल एक राजनीतिक मुखौटा बनकर रह जाते हैं?


कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल एक ऐसा ही चेहरा हैं। एक दलित नेता के रूप में उन्हें ऊँचे मंच, परंपरागत पगड़ी और प्रतीकात्मक भाषणों में खूब दिखाया जाता है। लेकिन जब दलित समाज के मूल मुद्दों पर निर्णायक हस्तक्षेप की ज़रूरत होती है, तो उनकी भूमिका खामोशी तक सिमट जाती है।


बीते कुछ दिनों से ग्वालियर हाईकोर्ट परिसर में बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को स्थापित करने को लेकर विवाद चल रहा है। सारे वैधानिक अनुमोदन प्राप्त होने के बावजूद कुछ जातिवादी अधिवक्ताओं द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है। यह न केवल अंबेडकर जी के विचारों का अपमान है, बल्कि संविधान और न्याय व्यवस्था की मूल भावना पर सीधा हमला है।


यह मामला कानून मंत्रालय के अधीन आता है। मंत्रालय चाहे तो एक सख्त निर्देश देकर इस विरोध को समाप्त कर सकता है। जिन अधिवक्ताओं ने लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया में बाधा डाली है, उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है — बार काउंसिल से उनका पंजीकरण रद्द किया जा सकता है। लेकिन मंत्रालय अब तक पूरी तरह मौन है।


यह चुप्पी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है, यह उस राजनीतिक सोच की चुप्पी है, जो दलित समाज को केवल प्रतीकों के जरिए संतुष्ट करना चाहती है। बाबा साहब का अपमान हो रहा है, लेकिन जिन्हें उनका संवैधानिक उत्तराधिकारी माना जाता है, वे केवल मूकदर्शक बने हुए हैं।


समाज को यह समझना होगा कि अब सिर्फ पहचान और पदों से संतोष नहीं मिलेगा। हमें ऐसे प्रतिनिधि चाहिए जो सवाल भी पूछें, जवाबदेही भी तय करें और जहाँ ज़रूरत हो वहाँ फैसले लेने का साहस भी दिखाएँ।


बाबा साहब ने हमें जो संविधान दिया, वह केवल किताबों में पूजने के लिए नहीं था — वह अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने का औज़ार था। अगर आज हम इस औज़ार का उपयोग नहीं कर पा रहे, तो शायद हमें खुद से पूछना चाहिए — हमारे नेता हमारी आवाज़ हैं या केवल सत्ता का हिस्सा?


ताराचन्द खोयड़ावाल, 
संपादक:- प्रगति न्यूज
संस्थापक:- मजदूर विकास फाउंडेशन

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