सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: उपेक्षित(मोची) समुदाय से जज बना तो उच्च वर्ग ने नहीं बर्दाश्त किया, क्या यही न्याय है?
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नई दिल्ली: भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और 'उपेक्षित' समुदायों के साथ होने वाले अन्याय पर गहरी चोट करता है। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के जज प्रेम कुमार के खिलाफ दर्ज एक मामले की सुनवाई करते हुए सख्त टिप्पणी की:
"अगर कोई उपेक्षित समुदाय से है और जज बनता है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसे उच्च वर्ग के लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते।"
यह टिप्पणी न केवल प्रेम कुमार के सम्मान को बहाल करती है, बल्कि यह भारत की न्यायिक प्रणाली में जातीय संवेदनशीलता और समावेशिता को भी बल देती है।
क्या है पूरा मामला?
जज प्रेम कुमार पर एक आरोपी द्वारा शिकायत दर्ज करवाई गई थी, जिसमें उन्हें 'संदिग्ध नीयत' वाला बताकर बदनाम करने की कोशिश की गई। यह मामला उस समय तूल पकड़ गया जब हाईकोर्ट की आंतरिक रिपोर्ट के आधार पर उनके खिलाफ कठोर कदम उठाए गए। प्रेम कुमार पंजाब के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर थे और उन्होंने कई जटिल आपराधिक मामलों का निपटारा किया था।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा:
"केवल इसलिए कि मैं उपेक्षित समुदाय से आता हूं, क्या इसका मतलब यह है कि मेरी ईमानदारी पर संदेह किया जाए? यह पूरी व्यवस्था के लिए खतरा है।"
'उपेक्षित' समुदाय से न्यायपालिका में प्रवेश—संघर्ष और सफलता की कहानी
प्रेम कुमार का जीवन एक प्रेरणास्रोत है। उनके पिता मोची का कार्य करते थे और मां मज़दूरी। अत्यंत गरीबी और सामाजिक असमानताओं के बीच उन्होंने शिक्षा और परिश्रम से न्यायपालिका में प्रवेश पाया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे लोगों को निशाना बनाना न्याय के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: समाज के लिए संदेश
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी केवल प्रेम कुमार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन सभी SC/ST, OBC और अन्य उपेक्षित वर्गों के लिए न्याय की नई परिभाषा गढ़ती है, जो वर्षों से सामाजिक भेदभाव का शिकार रहे हैं।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने आगे कहा:
"हमें ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद न्याय के मंदिर तक पहुंचे हैं, न कि उन्हें संदेह के घेरे में डालना।"
न्यायपालिका में जातिगत पूर्वाग्रह—एक गंभीर प्रश्न
इस फैसले ने एक बार फिर न्यायपालिका के भीतर मौजूद जातीय भेदभाव और चयन की पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए हैं। क्या उच्च वर्ग के लोग 'उपेक्षित' समुदाय से आए न्यायाधीशों को बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं हैं? क्या यह मानसिकता संविधान और बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों के खिलाफ नहीं है?
एक नई शुरुआत की उम्मीद
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय सामाजिक न्याय के क्षेत्र में एक मजबूत संदेश है। यह केवल प्रेम कुमार की न्यायिक प्रतिष्ठा को बहाल नहीं करता, बल्कि यह लाखों युवाओं को भी प्रेरित करता है कि वे जाति या सामाजिक पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर देश की सेवा करें।
भारत में न्याय तभी पूर्ण होगा जब हर ‘उपेक्षित’ नागरिक को समान अवसर और सम्मान मिलेगा—बिना किसी जातिगत या वर्गीय भेदभाव के।
लेखक: ताराचन्द खोयड़ावाल
स्रोत: सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी एवं मीडिया रिपोर्ट