भारतीय न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम: क्या यह लोकतंत्र के लिए खतरा है?

भारतीय न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम: क्या यह लोकतंत्र के लिए खतरा है?
भारतीय संविधान का मूलभूत सिद्धांत है "न्याय सबके लिए समान हो।" लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? न्यायपालिका को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, परंतु जब उसी न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव दिखता है, तो सवाल उठना लाजमी है। कॉलेजियम सिस्टम, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति होती है, लंबे समय से विवादों में रहा है। हाल ही में न्यायपालिका के कुछ जजों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं, जिसने इस व्यवस्था को और कटघरे में खड़ा कर दिया है।


कॉलेजियम सिस्टम: पारदर्शिता की कमी और पक्षपात

कॉलेजियम सिस्टम में पांच वरिष्ठतम जज नए जजों की नियुक्ति का फैसला करते हैं। इस प्रक्रिया में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती, जिससे यह पूरी तरह बंद दरवाजों के पीछे लिया गया निर्णय बन जाता है। यह प्रणाली न केवल पारदर्शिता के खिलाफ जाती है, बल्कि इसमें भाई-भतीजावाद और जातिगत पूर्वाग्रह की भी गंध आती है।

2015 में, संसद ने NJAC (National Judicial Appointments Commission) कानून पास किया, जिसके तहत जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भी भूमिका होती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया। यह खुद में एक विरोधाभास था—एक कानून जो संविधान द्वारा बनाई गई संसद ने पास किया, उसे असंवैधानिक बताकर खत्म कर दिया गया!


क्या न्यायपालिका में जातिगत असमानता है?

भारत में सामाजिक न्याय की बात जब आती है, तो न्यायपालिका हमेशा सवालों के घेरे में रही है। आंकड़े बताते हैं कि 96% जज ऊंची जातियों से आते हैं, जबकि भारत की बहुसंख्यक आबादी दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज से है।

  • दलित जज जस्टिस कर्णन का उदाहरण देखें। उन्होंने जब उच्च न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाए, तो उन्हें ही सज़ा दे दी गई।
  • दूसरी तरफ, कई ऐसे उदाहरण हैं जहां उच्च जाति के प्रभावशाली लोगों को गंभीर अपराधों में भी राहत मिलती रही है।

क्या यह न्याय है? जब न्यायपालिका में ही एकतरफा फैसले होते हैं, तो आम जनता किस पर भरोसा करे?


सरकार की नाकामी और निष्क्रियता

सरकारें इस समस्या पर चुप क्यों हैं? क्योंकि उन्हें भी इस तानाशाही कॉलेजियम सिस्टम से फायदा मिलता है। जब जजों की नियुक्ति बंद कमरे में होती है, तो सरकारें अपने पसंदीदा फैसले करवाने के लिए जजों पर अप्रत्यक्ष दबाव डाल सकती हैं।

इसके अलावा, आईटी एक्ट 2000 और 2023 में किए गए संशोधन भी सरकार के पक्ष में काम करते हैं।

  • धारा 69A के तहत सरकार किसी भी वेबसाइट या ऑनलाइन कंटेंट को "राष्ट्रीय सुरक्षा" के नाम पर ब्लॉक कर सकती है।
  • धारा 66A को सुप्रीम कोर्ट ने खत्म कर दिया था, लेकिन सरकार आज भी सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का हरसंभव प्रयास कर रही है।

सरकार न्यायपालिका के भ्रष्टाचार और कॉलेजियम सिस्टम की खामियों पर बोलने वालों को ही कटघरे में खड़ा कर देती है। यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक संकेत हैं।


समाधान क्या है?

  1. कॉलेजियम सिस्टम की समीक्षा: इसे पूरी तरह खत्म करने के बजाय एक संतुलित प्रणाली बनाई जाए, जिसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका और संसद की भूमिका हो।
  2. सामाजिक न्याय को बढ़ावा: न्यायपालिका में सभी वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व हो, ताकि यह सिर्फ एक वर्ग विशेष के फायदे के लिए न हो।
  3. पारदर्शिता: जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को जनता के सामने रखा जाए।
  4. मीडिया और जनता की भागीदारी: न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे, लेकिन यह जवाबदेह भी हो।


भारत की न्यायपालिका, जो कभी जनता के लिए न्याय का मंदिर हुआ करती थी, आज खुद संदेह के घेरे में है। कॉलेजियम सिस्टम एक "गुप्त क्लब" की तरह काम करता है, जहां जनता का कोई हस्तक्षेप नहीं। सरकार भी इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है, क्योंकि इससे उसे भी फायदा मिलता है।

अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आम जनता का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ जाएगा। और जब न्यायपालिका पर ही भरोसा नहीं रहेगा, तो लोकतंत्र भी बस एक दिखावा बनकर रह जाएगा।

अब वक्त आ गया है कि जनता इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाए!

 


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