गली, मोहल्ला, चौराहा—हर जगह लोग ऐसे राजनीतिक ब्रांड एंबेसडर बन गए हैं जैसे पार्टी उन्हें सैलरी दे रही हो, पेंशन लगा दी हो, और बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी उठा रही हो।
आजकल रिश्ते-नाते निभाने का पैमाना बदल गया है। पहले लोग शादी-ब्याह में पूछते थे,
"कितने लोग आ रहे हैं?"
अब पूछते हैं,
"किस पार्टी वाले आ रहे हैं?"
सामाजिक मर्यादाएँ? अरे, वो तो अब किताबों और भाषणों में रहने वाली चीज़ हैं।
अब तो हालात यह हैं कि अगर पड़ोसी की पार्टी अलग है तो उसके घर में घुसकर पानी पीना भी "आदर्शों की हत्या" समझा जाता है।
WhatsApp और Facebook पर तो माहौल युद्ध जैसा है—एक-दूसरे को ऐसे मीम और फेक न्यूज भेजी जाती हैं जैसे सामने वाला दुश्मन मुल्क का एजेंट हो।
मज़े की बात ये है कि ये लोग पार्टियों के ऐसे गुण गाते हैं जैसे पार्टी उनके लिए रोज़ रात को दूध-हलवा भेजती हो। नेता जी के भ्रष्टाचार, दंगों, और वादाखिलाफी पर सवाल उठाओ तो जवाब मिलता है:
"तुम्हें क्या पता, हमारे नेता का विज़न कितना बड़ा है!"
अरे भाई, विज़न बड़ा होगा, लेकिन नज़र तो आम जनता पर भी रखो—वो सड़कें, वो स्कूल, वो अस्पताल, जिनकी हालत देखकर नेता जी की विज़न ही धुंधला जाए।
लेकिन नहीं…
यहाँ तर्क से नहीं, ट्रोल से काम चलता है।
अगर सामने वाला आपकी पार्टी की आलोचना करे तो सीधा उसे "देशद्रोही", "गद्दार", "गुलाम मानसिकता वाला" ठहरा दो।
और फिर अगली सुबह मंदिर/मस्जिद में जाकर शांति के लिए प्रार्थना कर लो—क्योंकि सोशल मीडिया पर कर्म तो हो चुके हैं।
राजनीति करना बुरी बात नहीं है, लेकिन राजनीति को समाज में शिष्टाचार से ऊपर रख देना—यही असली बर्बादी है।
याद रखो, पार्टी बदल सकती है, नेता गिर सकते हैं, लेकिन समाज अगर बिखर गया, तो फिर चुनावी जीत का क्या फायदा?
आखिर में एक सलाह:
अगर पार्टी का प्रचार करना ही है, तो पहले अपने घर, मोहल्ले और समाज में शांति और सम्मान का प्रचार करो।
क्योंकि जो पार्टी तुम्हें अपने झंडे में लपेट रही है, वो चुनाव हारते ही उसी झंडे को बैनर बना कर किसी और का फोटो छाप देगी—और तुम अब भी मोहल्ले में ब्लॉक लिस्ट में रहोगे।